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नरा॒शꣳसः॒ प्रति॒ शूरो॒ मिमा॑न॒स्तनू॒नपा॒त् प्रति॑ य॒ज्ञस्य॒ धाम॑। गोभि॑र्व॒पावा॒न् मधु॑ना सम॒ञ्जन् हिर॑ण्यैश्च॒न्द्री य॑जति॒ प्रचे॑ताः ॥३७ ॥

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

नरा॒शꣳसः॑। प्रति॑। शूरः॑। मिमा॑नः। तनू॒नपा॒दिति॒ तनू॒ऽनपा॑त्। प्रति॑। य॒ज्ञस्य॑। धाम॑। गोभिः॑। व॒पावा॒निति॑ व॒पाऽवा॑न्। मधु॑ना। स॒म॒ञ्जन्निति॑ सम्ऽअ॒ञ्जन्। हिर॑ण्यैः। च॒न्द्री। य॒ज॒ति॒। प्रचे॑ता॒ इति॒ प्रऽचे॑ताः ॥३७ ॥

यजुर्वेद » अध्याय:20» मन्त्र:37


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हिन्दी - स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर प्रकारान्तर से विद्वानों के विषय को अगले मन्त्र में कहा है ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! (नराशंसः) जो मनुष्यों से प्रशंसा किया जाता (यज्ञस्य) सत्य व्यवहार के (धाम) स्थान का और (प्रति, मिमानः) अनेक उत्तम पदार्थों का निर्माण करनेहारा (शूरः) सब ओर से निर्भय (तनूनपात्) जो शरीर का पात न करनेहारा (गोभिः) गाय और बैलों से (वपावान्) जिससे क्षेत्र बोये जाते हैं, उस प्रशंसित उत्तम क्रिया से युक्त (मधुना) मधुरादि रस से (समञ्जन्) प्रकट करता हुआ (हिरण्यैः) सुवर्णादि पदार्थों से (चन्द्री) बहुत सुवर्णवान् (प्रचेताः) उत्तम प्रज्ञायुक्त विद्वान् (प्रति, यजति) यज्ञ करता कराता है, सो हमारे आश्रय के योग्य है ॥३७ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यों को योग्य है कि किसी निन्दित, भीरु, अपने शरीर के नाश करनेहारे, उद्यमहीन, आलसी, मूढ़ और दरिद्री का संग कभी न करें ॥३७ ॥
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संस्कृत - स्वामी दयानन्द सरस्वती

अथ प्रकारान्तरेण विद्वद्विषयमाह ॥

अन्वय:

(नराशंसः) यो नरैराशस्यते स्तूयते सः (प्रति) व्याप्तौ (शूरः) सर्वतो निर्भयः (मिमानः) योऽनेकानुत्तमान् पदार्थान् मिमीते (तनूनपात्) यस्तनूं न पातयति (प्रति) (यज्ञस्य) सत्यव्यवहारस्य (धाम) (गोभिः) धेनुवृषभैः (वपावान्) वपन्ति यया क्रियया सा वपा सा प्रशस्ता विद्यते यस्य सः (मधुना) मधुरगुणेन रसेन (समञ्जन्) व्यक्तीकुर्वन् (हिरण्यैः) सुवर्णादिभिः (चन्द्री) चन्द्रं बहुसुवर्णं विद्यते यस्य सः (यजति) (प्रचेताः) प्रकृष्टं चेतः प्रज्ञा यस्य सः ॥३७ ॥

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्याः ! यो नराशंसो यज्ञस्य धाम प्रति मिमानः शूरस्तनूनपाद् गोभिर्वपावान् मधुना समञ्जन् हिरण्यैश्चन्द्री प्रचेताः प्रति यजति, सोऽस्माभिराश्रयितव्यः ॥३७ ॥
भावार्थभाषाः - मनुष्यैः कश्चिन्निन्दितो भीरुः स्वशरीरनाशक उद्यमहीनोऽलसो मूढो दरिद्रश्च नैव संगन्तव्यः ॥३७ ॥
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मराठी - माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - माणसांनी निंदित, भीरू व शरीराचा नाश करणारे उद्योगहीन, आळशी, मूढ व दरिद्री यांची संगत कधी धरता कामा नये.